Sunday 1 June, 2008

बाबा के ख्वाब का खून देखेंगे


भारत में सामाजिक असमानता की भयानक उबड़-खाबड़ पहाडि़यों पर शोषित लोगों को सहारा देने के लिए आरक्षण का स्वप्न देखा गया था। ऐसा मासूम स्वप्न भारत के ईमानदार लोकतांत्रिक राजनेता ही देख सकते थे, वरना विश्व में ऐसी व्यवस्थाएं कम ही हुई हैं, जिन्होंने अपने यहां दबे-कुचले लोगों के लिए ऐसी विशेष व्यवस्था की है। आरक्षण हमारे देश के लिए एक अद्भुत खूबसूरत संबल था, लेकिन अब इस संबल का जिस तरह से मजाक उड़ाया जा रहा है, उसकी जितनी निंदा की जाए कम होगी। लोग आरक्षण के नाम से चिढ़ने लगे हैं। मध्य प्रदेश के एक मंत्री जी ने तो यहां तक कह दिया कि जो आरक्षण मांग रहे हैं, वे भिखारी हैं। अब कीजिए बात, एक नेता देता है, तो दूसरा लेने वालों को भिखारी कहता है, क्योंकि वास्तव में जिस जनता को आरक्षण नहीं मिल रहा है, वो जनता ऐसी टिप्पणियों को सुनकर खुश होती है। आरक्षण को कभी इलाज माना गया था, लेकिन अब वह रोग बन चुका है। यह रोग जन-मन से लेकर सड़कों-पटरियों पर फैल गया है। आप एक जगह इस रोग का इलाज करते हैं, तो वह सरककर किसी दूसरी जगह पर उभर आता है।
जिसे भारतीय समाज के लिए अमृत माना गया था, वह विष में कैसे तब्दील हो गया, हम अंबेडकर से बैंसला तक कैसे पहुंच गए? अंबेडकर होते, तो भारत में आरक्षण की व्यवस्था को दस या बीस सालों में समाप्त करवा देते, लेकिन आज के नेताओं के लिए यह अच्छा है कि अंबेडकर नहीं हैं। मायावती खुलकर कई वर्षों तक आरक्षण की राजनीति कर सकती हैं, बैंसला मरते दम तक पटरियों पर विराजमान रह सकते हैं, मुलायम सिंह यादव समाजवाद की आड़ में जातियों की गोटी सजा सकते हैं, लालू जी यादवों-दलितों को भड़का सकते हैं। आरक्षण किसी के लिए रोग है, तो किसी के लिए भोग। जातियां भी अपने आरक्षण के दर्जे में विकास चाहती हैं। लोग खुद को दबा-कुचला कहलाने को बेताब हैं। गुर्जर कोई अकेले नहीं हैं, जिन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल होना है। देश भर में करीब 1000 जातियों ने अनुसूचित जनजाति में शामिल होने के लिए आवेदन लगा रखा है। बिहार या यूपी में किसी जाति के प्रति इतना डर नहीं है, जितना राजस्थान में कुछ कथित पिछड़ी-दबी कुचली जातियों का है। इसके अलावा बिहार या यूपी में जातियों से कलम ने कभी हार नहीं मानी है, लेकिन राजस्थान में इतना भय है कि कोई साफगोई का परिचय देने को तैयार नहीं है। पूरा प्रदेश भयादोहन का शिकार होने को मजबूर है।

हम डरे हुए हैं। आरक्षण का स्वप्न अब दु:स्वप्न में बदल रहा है। कुछ लोग कहते हैं, यह आरक्षण के अंत की शुरुआत है। कार्ल मार्क्स ने जो स्वप्न देखा था, उसे रूस और चीन में फांसी पर लटका दिया गया। भारत में डॉ। अंबेडकर ने जो स्वप्न देखा, वह कठघरे में खड़ा है उसके खिलाफ मुकदमे की शुरुआत हो चुकी है।

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