Saturday 2 August, 2008

आज कुछ उदास लाल सलाम


कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत का हमारी दुनिया से विदा होना न केवल भारतीय वामपंथ, बल्कि वैश्विक वामपंथी विचारधारा के लिए एक बड़ी क्षति है। एक विरल वामपंथी के रूप में पगघारी सरदार कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत भारतीय वाम का सच्चा चेहरा थे। एक ऐसा भारतीय, जो राष्ट्रवाद की आंच में तपने के बाद वाम धरा पर चट्टानी मजबूती के साथ स्थापित हुआ था। भारतीय परिवेश में वामपंथी होना कितना कठिन है, यह बात सुरजीत बहुत अच्छी तरह जानते थे। सच्चा वामपंथ अवसरवाद के अवसर नहीं देता, वह तो संपूर्ण संमर्पण मांगता है और कॉमरेड सुरजीत वाम विचारधारा की कसौटी पर सोलह आना खरे उतरे। सुरजीत के कॉमरेड होने की बात करने से पहले उनके सच्चे राष्ट्रवादी होने की बात करना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि अपने देश पर चीन ने जब 1962 में हमला किया था, तब विचारधारा के स्तर पर चीन के समर्थन में नजर आने वाले कॉमरेड सुरजीत की राष्ट्र निष्ठा पर सवाल उठाए गए थे और वामधारा की समझ के अभाव में हमेशा उठाए जाते रहेंगे। अंग्रेजों के समय किशोर सुरजीत सबसे पहले भगत सिंह की विचारधारा से प्रभावित होकर नौजवान भारत सभा में शामिल हो गए थे। इतना ही नहीं, युवा वय में होशियारपुर कोर्ट पर भारतीय ध्वज को फहराने के जुनून में उन्होंने पुलिस फायरिंग को भी अनदेखा कर दिया था और कोर्ट में अपना नाम `लंदन तोड़ सिंह´ बताया था। कॉमरेड सुरजीत का इतिहास लिखते हुए `लंदन तोड़ सिंह´ को नजरअंदाज करना अक्षम्य अपराध होगा। जो `लंदन तोड़ सिंह´ को नहीं जानता, वह कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत को कैसे समझ सकता है? कॉमरेड सुरजीत को सामने रखकर आप बेहिचक बोल सकते हैं, आजादी की लड़ाई में वामपंथियों ने भी भाग लिया था। कॉमरेड सुरजीत की भावधारा का निर्माण पढ़े-लिखे सोवियत संघ-मुखी बुद्धिजीवियों की बैठकों में गरमागरम बहस करते हुए नहीं हुआ था। वे केवल किताब पढ़कर कॉमरेड नहीं हो गए थे, वे पंजाब में किसानों के शोषण के खिलाफ लड़ते हुए कॉमरेड हुए थे। हां उनसे गलती हुई, उन्होंने भारत की आजादी को एक झटके में स्वीकार नहीं किया। हालांकि इसके पीछे भी एक दमदार वजह है। एक नेता के रूप में उनकी निगाह महज गरीबों और शोषितों पर टिकी थी, वे रोटी का स्वप्न देख रहे थे, आजाद देश की सत्ता में भागीदारी का स्वप्न नहीं देख पा रहे थे। शायद इसीलिए उन्होंने अन्य अनेक वामपंथियों की तरह भारत की आजादी को झूठी आजादी ठहराया था। ईमानदारी से देखिए, तो आज भी भारत में गरीबों और शोषितों का एक विशाल हुजूम है, जो आजादी के ककहरे से महरूम हैं। वे विरल वामपंथी थे। सिख थे, तो अंत तक सिख रहे, खालिस्तान आंदोलन का विरोध किया। स्टालिन को आदर्श मानते थे, लेकिन बैलेट बॉक्स की राजनीति से कभी परहेज नहीं किया। वे चुनाव लड़ने वाले वामपंथी नहीं थे, वे तो 1980 का दशक आते-आते वाम विचारधारा को दिल्ली में आधार देने वाले राजनीतिज्ञ में तब्दील हो चुके थे। दिल्ली जैसी खतरनाक सत्ता-प्रेमी जगह पर वामपंथी होना वाकई मुश्किल काम है, लेकिन वहां उन्होंने एक संयोजक, समन्वयक बनकर सांप्रदायिकता से लोहा लिया। माकपा महासचिव नंबूदरीपाद के समय वामपंथी कुछ समय के लिए भाजपा के साथ दिखे थे, लेकिन कॉमरेड सुरजीत के महासचिव रहते कभी ऐसा नहीं हुआ। भाजपा को सत्ता से अलग रखने के लिए उन्होंने अनेक मोर्चों , समीकरणों की रचना की। अफसोस अब जब कोई तीसरा मोर्चा बनेगा, तो छोटे-छोटे दलों के नेताओं को साथ लेकर एक साथ हाथ ऊपर उठाए हुए कॉमरेड सुरजीत नजर नहीं आएंगे। पता नहीं, उनके बिना इस देश में कोई तीसरा मोर्चा बन भी पाएगा या नहीं। केवल वामधारा ने ही नहीं, भारतीय राजनीति ने अपना एक महत्वपूर्ण महारथी गंवा दिया है। वाकई, आज उदास है लाल सलाम।

2 comments:

vipinkizindagi said...

आज उदास है लाल सलाम।

achchi post hai..

surjeet said...

surjeet k bare mein adhbhut jankari mili. bhasha mein pravah baha le gaya.