Friday 16 January, 2009

अमिताभ की नाराजगी और कुछ यादें

आजकल फिल्म `स्लमडग मिलेनेयर´ का बड़ा हल्ला है। इस फिल्म से अमिताभ बच्चन उत्तेजित हैं। भारत से प्यार करने वाला कोई भी व्यक्ति `स्लमडग मिलेनेयर´ में दिखाए गए भारत को देखना पसंद नहीं करेगा, लेकिन यह भारत भी एक सच है। `स्लमडग मिलेनेयर´ भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी विकास स्वरूप की रचना `क्वॉस्चन एंड आंसर´ पर आधारित है। इस किताब का हिन्दी अनुवाद भी लगभग तीन साल पहले `कौन बनेगा अरबपति´ नाम से आ चुका है। लगभग सवा दो साल पहले मैं अमर उजाला, नोएडा में सेंट्रल डेस्क पर कार्यरत था। संपादकीय पृष्ठ और फीचर के होल-सोल इंचार्ज श्री गोविन्द सिंह जी ने जब समीक्षा के लिए मुझे `कौन बनेगा अरबपति´ प्रदान किया, तो मुझे लगा कि किसी घटिया रचना से मेरा सामना होने वाला है। मैं कोशिश करके किताब को पढ़ने लगा और जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, अर्थ भी लगाता गया। झुग्गी में रहने वाला एक बिल्कुल आम भारतीय राम मोहम्मद थॉमस कौन बनेगा अरबपति कार्यक्रम में जैसे-तैसे सवालों के जवाब देते हुए कामयाब हो जाता है। सवाल जवाब के दौरान बीच-बीच में ब्रेक के समय फिक्सिंग की कोशिश भी नजर आती है, जो शायद अमिताभ बच्चन को पसंद नहीं आ रही होगी। क्योंकि भारत में कौन बनेगा करोड़पति के एंकर अमिताभ ही थे और उन्हें ईमानदार देखा गया था। दूसरी ओर, कौन बनेगा अरबपति में प्रश्नकर्ता ईमानदार नहीं है। यह बात भी अमिताभ को चुभी होगी। वह युवक प्रतियोगिता जीतने के बावजूद पुरस्कार राशि के लिए जद्दोजहद करता है, क्योंकि उसकी योग्यता पर सवाल उठने लगते हैं, उसे फर्जी, बेईमान व साजिशबाज साबित करने की कोशिश होती है, उसे पुलिस से पकड़वाया जाता है। उसके नाम पर भी सवाल उठाये जाते हैं. उससे बार-बार पूछा जाता है कि वह प्रतियोगिता जीतने में कैसे कामयाब हुआ, जबकि वह अंग्रेजी भी नहीं जानता, उसका विद्यालयों से भी सरोकार नहीं रहा। इस गरीब युवक की जीत के बात प्रोग्राम के प्रायोजकों की भी पोल खुलती है, जो पुरस्कार राशि देने से बचना चाहते हैं। जाहिर है, अपने देश में कौन बनेगा करोड़पति ने एक अच्छा ख्वाबों वाला माहौल बनाया था, लेकिन कौन बनेगा अरबपति में ख्वाबों वाला माहौल चौपट होता दिखता है, अत: कौन बनेगा करोड़पति से जुड़े लोगों को यह उपन्यास कभी पसंद नहीं आ सकता। स्लमडग मिलेनेयर फिल्म उन्हें पसंद नहीं आ रही है, तो कोई आश्चर्य नहीं। सवा दो साल पहले भी समीक्षा लिखते हुए मुझे लगा था कि इस पर फिल्म अच्छी बनाई जा सकती है। विदेशियों ने फिल्म बनाने का साहस कर दिखाया।
चलते-चलते बताते चलें कि जिन दिनों अमर उजाला में मेरी लिखी समीक्षा छपी थी, उन दिनों मैं अमर उजाला छोड़ चुका था। बाद में उसके मानदेय वाला लिफाफा अत्यंत सीधे-सज्जन-कुशल बॉस गोविन्द सिंह जी की कृपा से बड़ी मुश्किल से यहां-वहां होता हुआ, नए शहर में मुझ तक पहुंचा था।
एक और बात, जिन दिनों मैं उस किताब को पढ़ रहा था, उस पर लिख रहा था, उन दिनों एक गाना मेरे दिमाग में बार-बार गूंजता था कि
हम न समझे थे, बात इतनी-सी
ख्वाब शीशे के, दुनिया पत्थर की।
---क्या यह गाना राम मोहम्मद थॉमस पर सटीक नहीं बैठता है?

2 comments:

ab inconvenienti said...

यह गाना तो हर एक इन्सान पर लागू होता है, व्हाइट टाइगर भी लोगों को रास नहीं आ रही, समझ नहीं आता की निन्यानवे प्रतिशत भारतीयों की असलियत सच्चा भारत है, या एक प्रतिशत इंडियनों का इंडिया भारत का सही रूप है?

पता नहीं क्यों हमें अपने समाज के नासूर, ज़हर और सड़न दिखाई नहीं पड़ते? और पिछली पीढी के ओशो रजनीश से लेकर आज के विकास स्वरूप और अरविन्द अडिगा जो भी हमें आइना दिखता है उसी पर जाहिलों जैसे पत्थर लिए पिल पड़ते हैं!

राजीव जैन said...

सर सही बात है
भारत की दुर्दशा दिखाकर पैसे कमाने का अच्छा तरीका ढूंढ रखा है अंग्रेजों और तथाकथित अपने बौद्धिक वर्ग ने। फिर भी फिल्म का इंतजार रहेगा।