Sunday 9 September, 2012

राजनीति बनाम लोकनीति 3


भाग - तीन
आज हमारा देश लोकनेता और लोकनीति की मांग कर रहा है, लेकिन उसे राजनेता और राजनीति की प्राप्ति हो रही है।
पिछले दिनों अन्ना हजारे के नेतृत्व में आंदोलन हुआ। सत्ता में बैठे घाघ नेताओं ने अन्ना पर बार-बार आरोप लगाया कि वे राजनीति कर रहे हैं, अन्ना इसका जवाब नहीं दे पाए। उन्हें यह कहना चाहिए था कि मैं लोकनीति कर रहा हूं। लोगों के पक्ष में बोल रहा हूं, लोगों को न्याय दिलाने के प्रयास में लगा हूं। मतलब यह कि राजनीति को केवल राजनेता ही नहीं, बल्कि हमारे समाज के बड़े समाजसेवी भी गलत समझ रहे हैं। क्या आम आदमी राजनीति नहीं कर सकता? क्या वह कोई मांग करे, तो यह माना जाए कि वह राजनीति कर रहा है? आज के दौर के नेताओं की समझ पर तरस खाने का मन करता है। मैं तो कहूंगा कि यह राजनीति भी नहीं है, यह ‘लूटनीति’ है। इन लोगों ने किया क्या है? ‘डेमोक्रसी’ को बहुत हद तक ‘क्लेप्टोक्रसी’ में बदल दिया गया है। राजनेताओं का राज लुटेरों के राज में तब्दील हो गया है। कितने घोटाले हुए, उन्हें करने से कौन-कौन बच नहीं पाया, इसके विस्तार में जाना तो भयावह है। मुल्क को हमाम समझ लिया गया है, जहां वस्त्र है भी, तो केवल भ्रम फैलाने के लिए, दरअसल लगभग सभी निर्वस्त्र हैं। जो निर्वस्त्र नहीं है, वह निर्वस्त्रों की भीड़ में गुम हो जा रहा है। इस जगह पर हमें आज के राजनेताओं और राजनीति ने पहुंचा दिया है। विदेशी सरकारें हों या विदेशी कंपनियां यह मानकर चलती हैं कि ये लोग तो ऐसे ही हैं, इनके साथ कुछ भी किया जा सकता है। यह कौन-सी राजनीति है, जिसने भारतीयता और भारतीयों के सम्मान को क्षति पहुंचाई है? सच्ची राजनीति वह है, जो राजनेता के साथ-साथ देशवासियों और देश का सम्मान बढ़ाती है, लेकिन आज हमारे राजनेता क्या कर रहे हैं?
आम तौर पर मैं इस विषय पर बोलने से बचता हूं, यह पूजनीय रामबहादुर राय जी का प्रस्ताव था, जिसे मैं टाल नहीं सकता था। आज जरूरत लोकनीति की है, उसे कैसे मजबूत किया जाए, इस पर काम करने की जरूरत है। इस देश की सत्ता लोगों के हाथों में थी, लोगों ने सत्ता को लूटा नहीं था, हमारे राष्ट्रनिर्माताओं ने सत्ता लोगों को थमाई थी, लेकिन आज लोगों की सत्ता पर राजनेताओं और राजनीति का कब्जा हो गया है। नागरिक के मौलिक अधिकार, सम्मान, रोजी, रोटी, जान-माल यदि सुरक्षित हैं, तो फिर लोकनीति में आने की कोई जरूरत नहीं। यह देश सीधे-सादे लोगों का देश है, आम आदमी को अमन चैन के साथ दो वक्त की रोटी चाहिए। लेकिन राजनीति ने अगर जीवन से जुड़ी असुरक्षाओं को बढ़ा दिया है, अगर जनता के हाथ से सत्ता छिन गई है, तो फिर सत्ता पाने के लिए जनता को आगे आना ही चाहिए, इसे कोई अगर राजनीति समझता है, तो समझे। मजबूत हो चुकी सत्ता से अधिकार या सम्मान पाने का संघर्ष राजनीति ही है और राजनीति केवल राजनेताओं की बपौती नहीं है। अगर राजनेताओं ने अपने कत्र्तव्यों को निभाया होता, तो वे अपनी राजनीति में बने रह सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने कत्र्तव्यों को ढंग से नहीं निभाया है, तो उनकी राजनीति को अवश्य चुनौती मिलेगी और मिलनी ही चाहिए, ताकि अपने देश में लोकनीति बहाल हो। जय भारत . . .
समापन

No comments: