Wednesday 27 November, 2013

अब यहां से कहां जाएं हम

प्रवासी नायक : १९९० का दशक
(भाग - 8}
आदर्श भी देखे, प्रेम भी, असंतोष भी, यथार्थ भी, तो उसके बाद स्वाभाविक सवाल था ... अब यहां से कहां जाएं हम...। फिल्मी समाज ने समझ लिया कि खुद को बदलना होगा। ज्यादा यथार्थवादी हुए, तो संगीत-गीत की अहमियत घटती जाएगी, फिल्में सपना दिखाने का काम छोड़ देंगी, फिल्म का व्यवसाय मुश्किल हो जाएगा। तो फिल्मों ने यथार्थवाद की ओर से ध्यान हटाना शुरू किया। देशी नायक तो भ्रष्ट हो चुके थे, इतने यथार्थवादी हो चुके थे कि उनके सहारे सपने गढऩे का काम असंभव हो गया था। पिछले दशक में व्यावसायिक सिनेमा का नायक भीड़ में शामिल होकर बौना हो चुका था, नायिका सास या समाज के हाथों बुरी तरह से सताई गई थी, तो दूसरी ओर, खांटी समानांतर सिनेमा का नायक (नसीरुद्दीन शाह) 'पार' के बेघर मजदूर की तरह था या इसी फिल्म की नायिका (शबाना आजमी) की स्थिति एक गर्भवती सुअरी से भी बदतर हो चुकी थी। ऐसे नायक और नायिका सपनों की सौदागरी या कालाबाजारी में सहायक नहीं हो सकते थे, अत: १९९० के दशक में फिल्मों ने नायक-नायिका का विदेश से आयात किया। इसका मतलब यह नहीं कि अंग्रेज नायक-नायिका आयात हुए, आयात तो वही नायक-नायिका हुए, जिनके पूर्वज या पिता विदेश जाकर बस गए थे।
हम देखते हैं कि इसी दौर में देश ने आर्थिक उदारीकरण (वर्ष १९९१) को स्वीकार किया, विदेशियों, विदेश में बसे भारतवंशियों और प्रवासी भारतीयों की अहमियत बढ़ी। प्रवासी भारतीयों के लिए स्वर्ण युग शुरू हुआ। जैसे भारत सरकार ने विदेश में देश का भविष्य देखा, वैसे ही फिल्मों को भी अपना भविष्य विदेश में नजर आया। 

इस दशक के ठीक मध्य में फिल्म आई 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे। यह फिल्म ब्रिटेन-यूरोप से शुरू होती है और भारत आकर संपन्न होती है। प्रेम अंतरराष्ट्रीय हो चुका है और भारत एक मिलन स्थल या विवाह स्थल है। यह फिल्म न केवल सवाल उठाती है कि यहां से कहां जाएं हम, बल्कि उत्तर भी देती है कि तेरी बांहों में मर जाएं हम। यानी सपना फिर हावी हो गया, बांहों में मर जाने का सपना कितना यथार्थवादी है, यह सब जानते हैं, लेकिन लोग फिर भी सपनों की ओर मुड़े, क्योंकि वे कुछ देर के लिए अपनी जिंदगी के यथार्थ को भूल जाना चाहते थे। अपनी गंदी समस्याग्रस्त गलियों से दूर कहीं किसी मनोरम देश में लोग खुद को महसूस करना चाहते थे। कोई आश्चर्य नहीं, मानव सदा से ऐसा ही रहा है। वह जहां है, वहां से काफी दूर जाकर सोचना चाहता है। प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा भी अकसर कहते थे कि 'एक अच्छी रचना पाठकों को दूसरे संसार में ले जाती है।' फिल्में भी तो यही करती हैं, हॉलीवुड की फिल्म हों या बॉलीवुड की।
सुभाष घई की 'परदेश' हो या करण जौहर की 'कुछ कुछ होता है', प्रवासी भारतीय चरित्रों को लेकर ऐसी अनेक फिल्में बनीं, जिन्होंने दुनिया भर में बसे भारतवंशियों को लुभाया, बुलाया। यह फिल्मी नायक के रूप में शाहरुख खान का चरम दौर था। वे ताजा हवा के झोंके की तरह दीवाना बनकर आए थे, यथार्थ का बोझ उनके साथ नहीं था। प्रेम की चाहत थी, जिसके लिए वे दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच सकते थे। पूंजी उनके पास बहुत थी। तलाश थी, तो सिर्फ प्रेम की। इसमें कोई शक नहीं कि यही वह दशक था, जब भारतीय समाज का प्रवासी नायकों के प्रति मोह अत्यधिक बढ़ गया। भारतीय बाप अपनी बेटियों के लिए प्रवासी दूल्हे खोजने लगे थे, मानो देश के अंदर पूंजीवाले दूल्हों का अभाव हो गया हो। सपनों को फिर पंख लग गए थे। भारतीय युवाओं को भी लगने लगा था कि उनकी कीमत तभी है, जब वे भी प्रवासी हो जाएं या फॉरेन रिटर्न हो जाएं। विदेश में पढ़ाई, नौकरी करने से नायकत्व हासिल होने लगा। लोग कबूतरबाजों के हाथों में फंसकर कबूतर बनकर विदेश जाने को लालायित थे, क्योंकि नायक होने का रास्ता विदेश में ही खुलने लगा था। यही वह दशक था, जिसमें विदेश में भारतीयों की संख्या बढ़ी और फिल्मकारों को प्रवासी दर्शकों के बारे में भी सोचना पड़ा। जैसे विदेशी पूंजी भारतीय लाभांश की ओर आकर्षित हुई, ठीक उसी तरह से विदेश में बसे अनेक प्रवासी व विदेशी कलाकार रुपहले पर्दे पर हिस्सेदारी के लिए भारत आने के सपने देखने लगे।
(क्रमश:)

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